चुनाव पर्व की मीठी यादें कड़वी हकीकत

चुनाव पर्व की मीठी यादें कड़वी हकीकत


         


जब छोटा था मैं, यानी आज से कुछ साठ-पैंसठ साल पहले, तब त्योहारों से लगाव था। यूं कहिए कि त्योहारों से मोहब्बत थी। दिवाली, होली। हिंदू होते हुए भी, क्रिसमस और ईद भी खुशियों के त्योहार होते। क्रिसमस में केक मिलता, ईद में सेवइयां...। आज बुढापे , त्योहारों का मतलब, उनकी अंतर्वस्तु में कुछ फ्★ आ गया है। कुछ क्यों, बहुत फर्क। दिवाली आती है तो पटाखों से उत्पन्न् प्रदूषण का ख्याल आता है। कितनी विषैली गैसें पटाखों से फैलती हैं। और फिर जोखिम...दिवाली में, पटाखों से जले लोगों की संख्या कम नहीं। बीमार लोगों, वृद्धजनों और नन्हे शिशुओं को पटाखों के फटने से, उस शोर से जो तकलीफ होती है, वह बीमार, बूढ़े और शिशु ही बतला सकते हैं। फिर क्रूरता! मरहूम लेखक खुशवंत सिंह जी ने एक बार लिखा था कि एक दिवाली में उन्होंने कुछ शैतानों को एक मासूम कुत्ते की दुम पर पटाखों की एक कतार पिन-टाइप पटाखों की लड़ी) को बांधते हुए देखा। वे खुशवंत जी) उन्हें रोकने को उठे, लेकिन तब तक अन्याय हो चुका था। दुम पर चिंगारी लगाई गई और बस पटाखे एक के बाद एक फ्टने लगेकुत्ता बेचारा भागा, इधर से उधर, उधर से इधर, भय से पागल, और उस ही बे-सहारा भाग-दौड़ में वहां से गुजर रहे एक ट्रक पहियों के नीचे... !फि पटाखों के बनाने में बाल- शोषण (बाल-श्रम) का ख्याल आता है। बालकों की नाजुक उंगलियां पटाखों के निर्माण में काम करती रही , अब नियंत्रण हुआ है उस प्रथा में। लेकिन पूरी तरह नहीं। और राम लीला! क्या मजा आता था रावण, कुंभकर्ण और इंद्रजीत को जलते, झुलसते, राख होते देखकर। साल-दर-साल...मजा...पहला तीर उनके हाथों पर...वाह...दूसरा तीर उनके कंधो पर...वाह, वाह...तीसरा तीर उनकी छातियों पर...वाह, वाह, वाह...और चौथा उनके सिर पर...अरे वाह! जय हो! जय हो ! फि कई सालों के बाद, एक दिन, जब मैं बच्चा नहीं था, मेरी खुद की दो बच्चियां थी, एक श्रीलंकाई मित्र ने मुझे अंग्रेजी में कुछ कहा, जिसका हिंदी में तर्जुमा कुछ यूं है- गोपाल, मैं एक बुद्धिस्ट हूं। रावण यूं मेरे लिए कोई मायने नहीं रखता। लेकिन एक बार जब मेरा राम लीला के दिनों में दिल्ली जाना हुआ तो मैंने देखा कि वह खुशी नहीं हो रही है इस चुनावी त्योहार पर, जो तब कुछ लोग उल्लास के उद्घोष, जयघोष के बीच एक हुई थी और हमेशा होनी चाहिएअफसोस। जब इस बार जब छोटा था मैं, यानी आज से कुछ साठ-पैंसठ विशालकाय आकृति, जिसे वे लंका का राजा कह रहे थे, मैं और मेरी पत्नी वोट डालकर घर लौटे, मेरी छह साल साल पहले, तब त्योहारों से लगाव था। यूं कहिए कि को आग्नेय मिसाइल दाग पंक़र करते हुए उसका अंग- की पोती उछलते-कूदते आई। उसको कुछ अंदाज था। त्योहारों से मोहब्बत थी। दिवाली, होली। हिंदू होते हुए प्रत्यंग जला रहे थे और कुछ ही देर में वह आकृति राख इलेक्शन हो रहे हैं। वोटा डाला जाता है। बटन दबाया भी, क्रिसमस और ईद भी खुशियों के त्योहार होते। में तब्दील हो गई। यह देख मेरे भीतर भी कुछ जल गया। जाता है। हम कहते हैं-दिस पर्सन इज ए गुड पर्सन...और क्रिसमस में केक मिलता, ईद में सेवइयां...। आज बुढापे और तब मैंने तय किया कि यदि मेरा कभी कोई पुत्र बटन दबाते हैं उसके लिएफिर स्याही लगती है उंगली में, त्योहारों का मतलब, उनकी अंतर्वस्तु में कुछ फ्★ आ हुआ तो मैं उसका नाम रखेंगा- रावणइन सब बातों ने पर, वगैरह-वगैरह! गया है। कुछ क्यों, बहुत फर्क। दिवाली आती है तो दिवाली, नवरात्रि का वो पुराना मतलब, वह आनंद छीन शो मी...शो मी...द इंक मार्क... (आजकल बच्चे पटाखों से उत्पन्न् प्रदूषण का ख्याल आता है। कितनी लिया है। बच्चा जब था मैं, इन बातों का जहां ना अंग्रेजी में ही बोलते हैं...!) बोली वह। स्याही रेखा पर विषैली गैसें पटाखों से फैलती हैं। और फिर था चित्रा-जगजीत के अल्फज में तब ना दुनिया का गम उसने अपनी नन्ही उंगली दौड़ाई। फि मुझे देखते हुएजोखिम...दिवाली में, पटाखों से जले लोगों की संख्या था, ना रिश्तों के बंधन...। अब है, और अफ्सोस... हर डिड इट हर्ट ? ना, ना...बच्ची...। व्हेन विल द मार्क गो? कम नहीं। बीमार लोगों, वृद्धजनों और नन्हे शिशुओं को त्योहार में अब जब सोचता हूं, कुछ बातें पाता हूं, जिनसे मैंने कहा कि बहुत दिन लगेंगे। टिल आय बिकम बिग? पटाखों के फटने से, उस शोर से जो तकलीफ होती है, दिल दुखी हो जाता है। होली के रंगों में कीचड़ की नहीं, उतने दिन नहीं बच्ची। वैसे कई दिन... ओह फिर वह बीमार, बूढ़े और शिशु ही बतला सकते हैं। फिर प्रबलता, मां काली के नाम बकरियों की बलि, ईद में आया सवाल...सवालों का सवाल!..यु हैव क्रूरता! मरहूम लेखक खुशवंत सिंह जी ने एक बार जानवरों की कुर्बानी...। तब, बचपन में, बारिश के पानी वोटेड...राइट? यस! हु डिड यु वोट मॅर ? मैंने नाम दिया लिखा था कि एक दिवाली में उन्होंने कुछ शैतानों को और कागज की कश्तियों के दिनों में, एक और त्योहार, प्रत्याशी का। कुछ सोचा नन्ही ने, कुछ पल सोचा। फिर एक मासूम कुत्ते की दुम पर पटाखों की एक कतार एक नए त्योहार ने जन्म लिया था- चुनाव। उन्नीस सौ उसने जो कहा, मैं उस बात को कभी नहीं भूल सकता (पिन-टाइप पटाखों की लड़ी) को बांधते हुए देखा। वे बावन का चुनाव मुझे याद है। सात बरस का था मैं। क्या हूं। मेरे लिए उसमें गीता है, बाइबल है, अहुरा मज्दा, (खुशवंत जी) उन्हें रोकने को उठे, लेकिन तब तक बात थी उस चुनाव में। क्या मजा। क्या उमंग। धम्मपद, महावीर भगवान का मौन, कुरान-ए-पाक है। अन्याय हो चुका था। दुम पर चिंगारी लगाई गई और जवाहरलालजी का चुनाव था वह। गुलाबी चुनाव। मैं ...बट... बट व्हाट, बच्ची? बट...यु शुड हैव वोटेड पॅर बस पटाखे एक के बाद एक फ्टने लगेकुत्ता बेचारा बच्चा जो था, उसूलों की कोई समझ ना थी, नीतियों का बापूजी... मेरा दिल थम गया, आंखें भर गईं। मैंने नन्ही भागा, इधर से उधर, उधर से इधर, भय से पागल, और ज्ञान ना था। घोषणा पत्रों की पहचान ना थीपर फिर को गले लगाकर, बहती आंखों से नीरव आशीर्वाद उस ही बे-सहारा भाग-दौड़ में वहां से गुजर रहे एक ट्रक भी, उस बचपने की अपनी एक फिजा थी, एक सिफ्त, दिया। उसको मालूम है कि बापूजी अब नहीं हैं। मालूम के पहियों के नीचे... !फि पटाखों के बनाने में बाल- जो कि समझ रही थी कि देश करके कुछ होता है। देश है उसको कि डेथ करके कुछ बात है। उसने कई बार शोषण (बाल-श्रम) का ख्याल आता है। बालकों की के नेता होते हैं, जो नेता तो हैं मगर वे बहुत अच्छे लोग पूछा है मुझे श्हाउ डिड बापूजी डाय? मैंने जवाब दिया नाजुक उंगलियां पटाखों के निर्माण में काम करती रही भी हैं, सच्चे लोग हैं। बापूजी के साथ रहे हैं, बापूजी का है, गंभीरता से, उसके मन में किसी भी प्रकार के क्रोध हैं, अब नियंत्रण हुआ है उस प्रथा में। लेकिन पूरी तरह सहारा रहे हैं। और जब मेरे माता-पिता चुनाव में वोट या वेदना को जगह न देते हुए...कहा है कि बापूजी अब से नहीं। और राम लीला! क्या मजा आता था रावण, डालकर घर लौटे, तब उनके चेहरों पर एक खुशी थी, नहीं हैं लेकिन अपने तरीके से हैं भी...रुपयों की तस्वीर कुंभकर्ण और इंद्रजीत को जलते, झुलसते, राख होते कामयाबी की खुशी, जैसे किसी तीर्थ से लौटे हों, मथुरा में नहीं, सड़क के कूड़े की बड़ी-बड़ी बाल्टियों पर देखकर। साल-दर-साल...मजा...पहला तीर उनके हाथों से या काशी से, गंगा-स्नान के बाद मैंने उनकी उंगलियों चित्रित एनक में नहीं, लेकिन महादेवी वर्मा के शब्दों में, पर...वाह...दूसरा तीर उनके कंधो पर...वाह, पर चुनावी स्याही देखी। एक शांतमय गर्व था उनमें उस श्लोगों के दिल के सदन में...। इसलिए उसके मन में वाह...तीसरा तीर उनकी छातियों पर...वाह, वाह, स्याही के निशान पर। मानिए जैसे कि माथे पर लगे हुए श्बापूजी एक सत्य हैं, एक यथार्थ। फिर मैंने कहा उसको वाह...और चौथा उनके सिर पर...अरे वाह! जय हो! तिलक पर गर्व। पहला चुनाव था वहपहली लोकसभा कि बापूजी को तो वोट ना दे सका मैं,लेकिन बापूजी को जय हो ! फि कई सालों के बाद, एक दिन, जब मैं बच्चा के लिए। पहला चुनावी त्योहार था वह, लोकसभा के ध्यान में रखते हुए, उनकी याद में, इस चुनाव-यज्ञ में नहीं था, मेरी खुद की दो बच्चियां थी, एक श्रीलंकाई निर्माण के लिए। जैसा कि मैंने कहा है, तब मैं सात साल मैंने मताहुति दीयह चुनाव भी त्योहार हैउसकी बहुत मित्र ने मुझे अंग्रेजी में कुछ कहा, जिसका हिंदी में तर्जुमा का था। आज जब हम लोग सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव सी खूबियां हैं, उपलब्धियां हैं, जिनका वर्णन अनावश्यक कुछ यूं है- गोपाल, मैं एक बुद्धिस्ट हूं। रावण यूं मेरे के बीच है, मैं चौहत्तर साल का हूं। मेरी दोनों बच्चियों है। लेकिन कितनी विषमताएं दिखती हैं उसमें ! कितनी लिए कोई मायने नहीं रखता। लेकिन एक बार जब मेरा ने मुझे नाना बनाया हुआ है। मैं बूढ़ा हो गया हूं। और गालियां सुनने को मिली हैं, कितना गलौज !