आम चुनावः शोर और चुप्पी के बीच

आम चुनावः शोर और चुप्पी के बीच



एक ओर अभूतपूर्व शोर-शराबा, दूसरी तरफ शक्ति व्यर्थ करे? उसने पिछले पांच साल में जो देखा, की तो चुनाव आयोग ने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की। भी मतदाता ने केंद्र और प्रदेशों में सरकारें बदली हैं। असाधारण चुप्पी। सत्रहवीं लोकसभा के चुनावी सुना और भुगता है, उसके आधार पर भी शायद वह योगी आदित्यनाथ, मेनका गांधी सहित अनेक नेताओं याद कर सकते हैं कि 1957 में नेहरू की विराट परिदृश्य को शायद इस एक वाक्य में समेटा जा सकता चुप रहना बेहतर समझता है। आज के वातावरण में को इसी तरह सस्ते में छोड़ दिया गया। नमो टीवी पर उपस्थिति के बावजूद केरल विधानसभा में कम्युनिस्ट है! इतना शोर क्यों है, कारण समझना शायद कठिन शायद इसी में उसे समझदारी प्रतीत होती हैयह स्थिति आवश्यक कार्रवाई करने में भी आयोग ने विलंब पार्टी को विजय हासिल हुई थी। आने वाले वर्षों में ऐसे नहीं है। एक तो चुनाव आयोग ने पूरी प्रक्रिया संपन्न सुखद नहीं है। इसलिए कि आम चुनाव को लेकर किया। (यह लिख लेने के बाद सोमवार रात सूचना अनेक प्रमाण लगातार मिलते गए हैं। इसलिए न तो होने के लिए बेहद लंबा वक्त दे दिया। 10 मार्च को जनता के मन में जो उमंग, स्फूर्ति, उत्साह के भाव होते मिली कि आयोग ने चार नेताओं पर अनुशासन की किसी भी दल को अपनी सफलता पर एक हद से चुनावों की घोषणा की, जबकि नतीज आएंगे 23 मई हैं, उनका यहां अता-पता नहीं है। मतदाता आम चुनाव कार्रवाई की है।) लेकिन उधर मोदीजी अपने चुनावी बढ़कर अहंकार करना चाहिए और न अपने को को। इन दस हफ्तों में राजनैतिक दलों के पास बातें को एक त्यौहार मान उसके माध्यम से बेहतर भविष्य भाषणों में सैन्यबलों का उल्लेख कर आयोग की अपराजेय मानने की भूल करना चाहिए। चुनावों में करने के सिवाय काम ही क्या है? आज यहां, कल के प्रति आशा संजोता है, वह जैसे कहीं खो गई हैं। अवमानना करते रहे। मीडिया की लोकतंत्र में जो अहम पैसा और प्रचार की भूमिका को बढ़-चढ़ कर आंकना वहां। आज इसकी रैली, कल उसकी। आज एक का राजनेता एक दूसरे पर कीचड़ उछालें, अपशब्दों का भूमिका हो सकती है, उसके बारे में अधिक कहने की भी मेरी दृष्टि में गलत हैजो समझते हैं कि गरीब जनता रोड शो, कल दूसरे का। नया कुछ कहने को है नहीं, प्रयोग करेंय हर समय नीचा दिखाने की कोशिश करें आवश्यकता नहीं हैपरंतु आज जैसी स्थिति है, उसे को पैसों के बल पर खरीदा जा सकता है, मानना होगा तो वही-वही बातें बार-बार की जा रही हैं। तिस पर तो जनता के बीच इन नकारात्मक बातों का क्या संदेश देखकर लगता है कि मैं शायद किसी गलत जगह आ कि उनका भरोसा जनतंत्र में नहीं, बल्कि पूंजीतंत्र में चौबीस घंटा माथा गरम कर देने वाले टीवी चौनल। जाता है? यही न कि आपको जनता की नहीं, खुद की गया हूँ! चुनाव आयोग ने ओपिनियन पोल, एक्जाट है। वोटर उनसे पैसा लेकर भी उन्हें धूल चटा सकता है। सुबह से कथित विशेषज्ञ स्टूडियो में आकर बैठ धागे चिंता है। कहना होगा कि 2014 के आम चुनाव के पूर्व पोल, सर्वे आदि पर रोक लगा रखी है, लेकिन मीडिया और चटाता है। इसके उदाहरण कम नहीं हैं।एक सवाल उधेड़ने में जुट जाते हैं। संस्कृत का एक बढ़िया शब्द जब प्रधानमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के कोई न कोई तरकीब खोज कर इस प्रतिबंध का इन दिनों बार-बार उछाला जा रहा है कि विपक्ष की है- पिष्ठ पेषण। याने उसी आटे को बार-बार गूंधना। नेतृत्व में भाजपा ने भ्रष्टाचार, परिवारवाद आदि के मुद्दे लगातार उल्लंघन कर रहा है। एक चौनल पर किसी ओर से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार कौन है। जाहिर अंतहीन, दिशाहीन, अर्थहीन बहसों के अंबार तले उठाकर इस तरह के नकारात्मक प्रचार की शुरूआत की प्रवक्ता ने सही कहा कि यह ओपिनियन पोल नहीं, है कि नरेंद्र मोदी के समर्थक और भक्त ही यह प्रश्न समाचार और तथ्य कहां दब जाते हैं, पता ही नहीं चल थी, तब मतदाता ने भाजपा पर विश्वास कर उसे भारी बल्कि ओपिनियन मेकिंग पोल है। दरअसल होना तो कर रहे हैं। ये भूल जाते हैं कि भारत में संसदीय जनतंत्र पाता। भारत की जनता मानों इस निरर्थक कवायद को बहुमत से विजय प्रदान की थी, लेकिन आज पांच साल यह चाहिए कि जिस दिन चुनावों की तिथियां घोषित है, राष्ट्रपति शासन प्रणाली नहीं। यह ठीक है कि भावी झेलने के लिए अभिशप्त है। तो क्या आम मतदाता ने बाद उनके तमाम वायदे खोखले सिद्ध हो रहे हैं और हों, उसी दिन प्रच्छन्न प्रचार के इन उपायों पर भी रोक प्रधानमंत्री के लिए प्रमुख नेताओं के नाम उठते हैं किंतु इस घनघोर शोर से स्वयं को अलग रखने के लिए मौन जनता स्वयं को ठगी गई महसूस कर रही है। इस लग जाए। लेकिन यह राजनैतिक दलों के लिए भी आवश्यक नहीं कि हर बार ऐसा ही हो। 2014 में भले धारण कर लिया है। वह क्यों अपने आपको फिजूल की दरमियान लोकतांत्रिक संस्थाओं की जिस तरह दुर्गति आत्मपरीक्षण का विषय होना चाहिए। उन्हें क्यों लगता ही आरएसएस के आदेश पर भाजपा ने मोदीजी का बहसों में उलझाए? जब देश का प्रधानमंत्री बार-बार हुई है, उसने भी चिंता उत्पन्न की हैएक समय था जब है कि सच्चे-झूठे प्रचार के भरोसे चुनाव जीता जा नाम आगे कर दिया हो, किंतु क्या आज भी वही स्थिति दर्प भरे स्वर में खुद के चौकीदार होने का बखान करे, चुनाव आयोग पर जनता को अटूट विश्वास था। वह सकता है? जसगीत में, गणगौर के गीतों में, भजनों में, है? भाजपा में ही कम से कम दो नामों पर तो चर्चा जिसके मुकाबले विपक्षी दल का अध्यक्ष चौकीदार को विश्वास अब खंडित हो चुका है। ऐसे प्रसंग बार-बार सीरियलों में, चाय के प्यालों पर, रेलवे और विमान के चल ही रही है कि अब की जीते तो राजनाथ सिंह या चोर सिद्ध करने की चुनौती बारंबार फेंके तो सामान्य सामने आ रहे हैं, जिससे विपक्षी दलों को चुनाव टिकिटों पर प्रचार करने वाले एक तरह से अपने मन नितिन गड़करी प्रधानमंत्री बनाए जाएंगे, क्योंकि उनकी जन इस वाक्युद्ध में कहां तक दिलचस्पी ले? टीवी पर, आयोग की निष्पक्षता पर प्रश्नचिह्न लगाने का मौका की दुर्बलता ही व्यक्त करते हैंवे भूल जाते हैं कि स्वीकार्यता घटक दलों के बीच नरेंद्र मोदी के मुकाबले फेसबुक पर, यू ट्यूब पर, अखबारों में जब ऐसी ही मिल रहा है। एक उदाहरण राजस्थान के राज्यपाल 2004 के आम चुनावों में श्श्शाइनिंग इंडियाश्श् का अधिक हो गई है। भाजपा के बीच ही दबे स्वर में कहा बातें दोहराई जाएं तो वह कितना बर्दाश्त करे? हां, यह कल्याण सिंह का है। 1993 में जब हिमाचल के लुभावना नारा निष्फल सिद्ध हुआ था। सच तो यह है जा रहा है कि नितिन गड़करी को हटाने के लिए काफ तो वह जानता है कि उसे अपने मताधिकार का प्रयोग तत्कालीन राज्यपाल बैरिस्टर गुलशेर अहमद ने रीवां कि भारत की जनता अपने राजनैतिक दलों को बार- भीतरघात किया गया है। जहां तक कांग्रेस की बात है, करना है, उसने शायद यह तय भी कर लिया है कि (मप्र) में अपने बेटे के लिए वोट मांगे थे तो उन्हें पद बार कसौटी पर कसती हैजवाहरलाल नेहरू के निधन नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह दोनों अप्रत्याशित ढंग उसका वोट किसे जाएगा और क्यों जाएगा, लेकिन मन छोड़ना पड़ा था, लेकिन 2019 में जब राज्यपाल के उपरांत 1967 के चुनावों से ही यह प्रक्रिया प्रारंभ से प्रधानमंत्री बनाए गए थे। कुल मिलाकर यह एक की बात सार्वजनिक कर वह क्यों अपना समय और कल्याण सिंह ने खुलकर भाजपा को जिताने की अपील हो गई थी। जब चुनाव आयोग एक सदस्यीय था, तब व्यर्थ प्रश्न है।