आम चुनाव बनाम टीवी चैनल

आम चुनाव बनाम टीवी चैनल



टीवी चैनल किसी आम चुनाव के परिणामों को कैसे प्रभावित कर सकते हैं इसका पहले- पहल उदाहरण 1960 में अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव में देखने मिला था। रिपब्लिकन पार्टी की ओर से विदा लेते उपराष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन उम्मीदवार थे और उन्हें चुनौती देने उतरे थे डेमोक्रेटिक पार्टी के युवा सीनेटर जॉन एफ कैनेडी। दोनों उम्मीदवारों के बीच अमेरिकी टीवी चौनलों पर वाद-विवाद प्रतिस्पर्धा के अंदाज में डिबेट आयोजित हुए थे, जिनमें कैनेडी निक्सन पर भारी पड़ गए थे। उसी समय अनेक राजनैतिक पंडितों ने मान लिया था कि भविष्य के चुनाव टेलीविजन के माध्यम से ही तय होंगे। मीडिया जगत के लिए यह एक खुशखबर थी कि वे देश के भाग्यनियंता बन सकते हैं। लेकिन जैसा कि हम जानते हैं- सोचने और करने के बीच अक्सर एक फ्क्न होता है, जिसे क्षणिक भावावेग में झुठला दिया जाता है। इसमें शक नहीं कि टीवी के परदे पर निक्सन के मुकाबले कैनेडी की छवि निखरी हुई थी। उनके मुखमंडल पर युवकोचित मासूमियत तथा साथ ही एक आभिजात्य गरिमा थी, सूत्रधार के प्रश्न पूछने पर उनके उत्तर त्वरित व सटीक थे और वे अपनी सहज मुस्कान से दर्शकों-मतदाताओं को लुभा पाने में सफ्ल थे। दूसरी ओर निक्सन यद्यपि कहीं अधिक अनुभवी राजनेता थे, किंतु उनके मुखानन पर प्रौढ़ता की परछांई के अलावा एक तरह की पाषाणी निर्विकारता थी तथा अपने कोशिश करते हैं। लेकिन अमेरिकी राष्ट्रपति के वाली सरकार बनाने की होती है। पाठकों को पूंजीपतियों के नियंत्रण में है। इकानामिस्ट, बात कह रहे हैं। क्या इसका कोई दूरगामी और उत्तरों व तर्को में वे सहजता के बजाय वकीली परवर्ती चुनावों में हमने देखा कि चुनाव प्रचार यह जानकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट जैसे मशहूर व्यापक प्रभाव हो सकेगा, यह जानने के लिए टीवी चौनल किसी आम चुनाव के परिणामों अंदाज में पेश आ रहे थे। जाहिर है कि वे का अनिवार्य अंग बन जाने के बावजूद जीत- जिम्मी कार्टर, बिल क्लिंटन, बराक ओबामा और प्रतिष्ठित पत्र भी उस ट्राइलेटरल कमीशन प्रतीक्षा करना पड़ेगी। यहां एक मौजूं प्रश्न उठता को कैसे प्रभावित कर सकते हैं इसका पहले- दर्शकों को रिझाने में उतने सफ्ल नहीं हुए। हार में टीवी से कोई निर्णायक भूमिका नहीं की पीठ पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के ट्राइलेटरल का अंग रहे हैं, जिसका जाक्र हम ऊपर कर है कि क्या दुनिया के चौकीदारों के लिए सोशल पहल उदाहरण 1960 में अमेरिकी राष्ट्रपति के लेकिन सिर्फ इतने से यह मान लेना भूल होगी निभाई। 1964 में कार्यवाहक राष्ट्रपति जॉनसन कमीशन का हाथ था। अपनी गतिविधियां आए हैं। लॉर्ड थॉमसन और रूपर्ट मर्डोक आदि मीडिया पर पूर्ण नियंत्रण रख पाना संभव चुनाव में देखने मिला था। रिपब्लिकन पार्टी की कि कैनेडी टीवी प्रदर्शन की बदौलत चुनाव ही बाकायदा चुने गए, 1968 फ् ि1972 में अत्यन्त पोशीदा ढंग से चलाने वाले इस गुट में के आधिपत्य वाले पत्र-पत्रिकाएं, टीवी चौनल है ?वर्चस्ववादी, प्रभुतावादी शक्तियां ओर से विदा लेते उपराष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन जीत गए। दरअसल, निक्सन उपराष्ट्रपति के निक्सन को मतदाताओं ने चुना और 1976 में अमेरिका, यूरोप व जापान के अनेकानेक भी इस वैश्विक दुरभिसंधि से बाहर नहीं हैं। समाचारपत्रों व टीवी का उपयोग अब तक उम्मीदवार थे और उन्हें चुनौती देने उतरे थे रूप में हमेशा राष्ट्रपति आइनहोवर की छाया जॉर्जिया के गवर्नर लेकिन राष्ट्रीय परिदृश्य पर धनकुबेर शामिल हैं। इनमें जॉर्ज सोरोस व बिल इनके पास सिनेमा स्टूडियो हैं, फिल्म निर्माण अपनी इच्छानुसार करती आई हैं। अपने देश के डेमोक्रेटिक पार्टी के युवा सीनेटर जॉन एफ में रहे और अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व उस समय लगभग गुमनाम जिम्मी कार्टर राष्ट्रपति चुन लिए गेट्स जैसे नाम प्रमुखता से लिए जा सकते कंपनियां हैं, म्यूजाक कंपनियां हैं और फुटबॉल, आम चुनावों में भी हमने इसे देखा है टिजनता कैनेडी। दोनों उम्मीदवारों के बीच अमेरिकी तक विकसित नहीं कर पाए थे। जबकि जॉन गए। 1997 में बिल क्लिंटन जब चुने गए, तब हैं कहना न होगा कि भारत के आम चुनावों में बेसबॉल आदि के क्लब भी हैं। इन तमाम इस रहस्य को समझने लगी है। वह अब टीवी टीवी चौनलों पर वाद-विवाद प्रतिस्पर्धा के कैनेडी सीनेट में अपनी प्रभावशाली भूमिका के उनकी भी कोई खास पहचान नहीं थी। और भी ये दोनों धाराएं साथ-साथ चलती हैं। आम अवयवों का प्रयोग आम जनता पर मनोवैज्ञानिक चौनलों पर आंख मूंद कर ऐतबार नहीं करती। अंदाज में डिबेट आयोजित हुए थे, जिनमें कारण लगातार लोकप्रिय हो रहे थे। उन्हें अपने यह तथ्य सामने है कि 2016 में हिलेरी क्लिंटन जनता को तो सिर्फ इतने से मतलब है कि नियंत्रण स्थापित करने याने ब्रेनवाशिंग के लिए अखबारों में सत्ताधीशों के लंबे-लंबे इंटरव्यू कैनेडी निक्सन पर भारी पड़ गए थे। उसी समय परिवार की देशव्यापी प्रतिष्ठा का भी लाभ मिल को अपनी तमाम लोकप्रियता के बावजूद उसका जीवन सुकून से गुजरे यानी शिक्षा, किया जाता है। जनता खेल-तमाशे में मशगूल- देखकर वह जान जाती है कि यह प्रायोजित अनेक राजनैतिक पंडितों ने मान लिया था कि रहा था। उपराष्ट्रपति उम्मीदवार के रूप में उनके डोनाल्ड ट्रंप के हाथों मात खानी पड़ी। इन स्वास्थ्य, रोजगार, मकान, बिजली, पानी के मस्त रही आए और जब कभी वह बाहर सामग्री है। आम नागरिक जब किसी विषय पर भविष्य के चुनाव टेलीविजन के माध्यम से ही साथ टैक्सास के लिंडन जॉनसन थे, जिस उदाहरणों से समझ आता है कि तब का टीवी लिए उसे भटकना न पड़े और हमेशा अमन- निकलकर स्वतंत्र निर्णय लेने की सोचे तो उसे अपनी राय व्यक्त करना चाहता है तो उसे टीवी तय होंगे। मीडिया जगत के लिए यह एक कारण से रंगभेदग्रस्त दक्षिणी प्रदेशों में उनकी हो या आज का सर्वग्रासी मीडिया, चुनावों में चौन बना रहेलेकिन समाज के वर्चस्ववादी व्यर्थ मुद्दों में उलझा दिया जाए। इस प्रवृत्ति को या किसी हद तक अखबार में भी जगह नहीं खुशखबर थी कि वे देश के भाग्यनियंता बन स्वीकार्यता बढ़ी। शिकागो के अत्यन्त उसकी भूमिका सीमित ही हो सकती है मैंने तबका तो हमेशा ऊंची उड़ान भरने की फिराक हम भारत में बखूबी देख रहे हैंइसी तीन मई को मिलती। अब वह सोशल मीडिया का सहारा सकते हैं। लेकिन जैसा कि हम जानते हैं- प्रभावशाली मेयर तथा ट्रेड यूनियनों के सरताज अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी आदि के साथ 1990 में रहता है। उसके लोभ-लालच के बारे में प्रेस स्वतंत्रता दिवस मनाया गया। लेकिन मेरे लेने लगा हैचुनाव, पार्टी, नेता, प्रत्याशी-इन सोचने और करने के बीच अक्सर एक फ्क्न रिचर्ड डेली ने भी उनका साथ दिया था। शायद के बाद के रूस के चुनावों का भी जो सीमित जितना कहा जाए कम है। वह तो शेष समाज शहर रायपुर में पत्रकारिता विश्वविद्यालय में सबके बारे में वह अपनी राय यूट्यूब, ट्विटर, होता है, जिसे क्षणिक भावावेग में झुठला दिया कारपोरेट अमेरिका ने भी उनको पसंद किया अध्ययन किया है उससे निष्कर्ष यही निकलता को अपने अंगूठे के नीचे रखना चाहता है। आयोजित एकाध कार्यक्रम के अलावा कहीं भी फेसबुक पर साझा करने लगा हैनिस्संदेह जाता है। इसमें शक नहीं कि टीवी के परदे पर था। ऐसे तमाम मिले-जुले कारणों की भी है कि मतदाता सामान्यतरू उन मुद्दों के आधार समानता, न्याय, करुणा, त्याग- ये उसकी प्रेस या मीडिया की स्वतंत्रता की चर्चा नहीं हुई। निहित स्वार्थ भी इन माध्यमों का उपयोग निक्सन के मुकाबले कैनेडी की छवि निखरी उनकी जीत में भूमिका निभाई। याद रहे कि पर ही किसी पार्टी या व्यक्ति को वोट देना डिक्शनरी से विलोपित हैं। अपने दावानल मीडियाकर्मियों की अच्छी-खासी संख्या है, दुष्प्रचार के लिए करने दें, किंतु अब उनका झूठ हुई थी। उनके मुखमंडल पर युवकोचित कैनेडी रोमन कैथॉलिक थे, और प्रोटेस्टेंट पसंद करता है जो उसके जीवन से जुड़े जैसे स्वार्थ की पूर्ति के लिए वह कई तरह के लेकिन उनके बीच इस दिन को लेकर कोई पकड़ में आ जाता है। कोई न कोई उसे उजागर मासूमियत तथा साथ ही एक आभिजात्य गरिमा बहुल अमेरिका ने उनकी जीत की संभावना बुनियादी मुद्दों की समझ रखने के साथ उनको उपाय अपनाता है। वह जानता है कि राजसत्ता उत्तेजना देखने में नहीं आई। सोशल मीडिया पर कर देता है। इस तरह सोशल मीडिया पर एक थी, सूत्रधार के प्रश्न पूछने पर उनके उत्तर क्षीण थी, और वे बहुत कम अंतर से ही विजय महत्व दे और उन पर आधारित योजना तथा पर नियंत्रण किए बिना वह अपनी मनमानी नहीं अवश्य कुछ टिप्पणियां पढ़ने मिलीं, जिनसे इस संतुलन साधने की कोशिश होने लगी है जो त्वरित व सटीक थे और वे अपनी सहज हासिल कर पाए थे खैर, निक्सन-कैनेडी टीवी कार्यक्रम लाकर बेहतर भविष्य का स्वप्न दे कर सकता। इसके लिए निहायत जरूरी है कि उत्साहहीनता का कारण स्पष्ट होता है। वह यही पारंपरिक मीडिया खासकर टीवी के एकतरफ मुस्कान से दर्शकों-मतदाताओं को लुभा पाने में डिबेट के बाद तो यह चलन ही बन गया कि सके। लेकिन बात इतनी सरल नहीं है। जहां वह चुनावों में हस्तक्षेप करे और अपने लिए कि मीडिया पर नियंत्रण तो पूंजीपतियों का है, आख्यान का निषेध करती है। इस दिशा में सफ्ल थे। दूसरी ओर निक्सन यद्यपि कहीं हर राष्ट्रपति चुनाव के समय दोनों प्रमुख एक ओर औसत मतदाता हैं, वहीं दूसरी ओर क्रीतदासों की चुनी हुई फैज खड़ी कर ले। यहां पत्रकार करें भी तो क्या करें! यह एक कड़वी जनता जितनी जागरूक, जितनी सजग होगी, अधिक अनुभवी राजनेता थे, किंतु उनके उम्मीदवार टीवी पर बहस में आमने-सामने तरह-तरह के निहित स्वार्थ भी सक्रिय होते हैं आकर उसे मीडिया की जरूरत पड़ती है। यह सच्चाई है, लेकिन शायद राहत की बात भी है जितनी निर्भीकता का परिचय दे सकेगी, उसी मुखानन पर प्रौढ़ता की परछांई के अलावा एक आकर दर्शकों का दिल जीतने की भरसक जिनकी कोशिश अपने अजेंडों को लागू करने अनायास नहीं है कि वैश्विक मीडिया कमोबेश कि सोशल मीडिया पर लोग अपने दिल की अनुपात में स्थितियां सुधर पाएंगी।