चुनाव तक सिमटता जनतंत्र

चुनाव तक सिमटता जनतंत्र



बेशक, इसे एक बड़ी विडंबना ही कहा जाएगा। मामला हो जाता है बेशक, पिछले आम चुनाव के सीट पर पंजाबी सूर्फ गायक, हंसराज हंस को। वैसे है? इसी प्रकार, मुद्दा सिर्फ तकनीकी तरीके से 17वीं लोकसभा का चुनाव, सिर्फ सबसे उग्र हमलों विपरीत, इस आम चुनाव में भाजपा इकतरफ यह खेल हंसराज हंस, राजनीतिक पार्टियों से ही नहीं चुनाव से भी सांगठनिक भी नहीं है कि पैराशूट पर उम्मीदवार लड़ाए वाला चुनाव ही नहीं है, प्रायरू सभी राजनीतिक प्रेक्षकों नहीं खेल पायी है। उसके खिलाफ विपक्षी पार्टियों ने अपरिचित नहीं हैं और पहले कांग्रेस से चुनाव लड़ चुके जाएंगे, तो संबंधित पार्टियों के कार्यकर्ताओं की के अनुसार सबसे तीखे राजनीतिक विभाजन वाला भी यह दांव आजमाया है, जिसके सिलसिले में शत्रुघ्र थे। उधर कांग्रेस ने भी कम से कम एक सीट तो विश्व संभावनाओं का क्या होगा? असली मुद्दा बुनियादी अर्थ चुनाव भी है। इस विभाजन के तीखेपन को यह सच सिन्हा का नाम लिया जा सकता है। फिर भी इस चुनाव स्तर के बॉक्सर, विजेंद्र को दे ही दी है। वैसे प्रसंगवश में राजनीतिक है कि अगर बढ़ती संख्या में अराजनीतिक और बढ़ाता ही है कि चाहे देश के पैमाने पर, दो में इस तरह के पाला बदल का शायद सबसे चर्चित इसका जिक्र करना भी उचित होगा कि भाजपा की ओर लोग चुने जाते हैं, तो क्या इससे इन निर्वाचित निकायों सुसंगठित कतारबंदियां सामने नहीं हों और सत्ताधारी प्रकरण तो, उपचुनाव में प्रतिष्ठित गोरखपुर लोकसभाई से मैदान में उतरे निवर्तमान सांसद, मनोज तिवारी की की जनतांत्रिक भूमिका, खासतौर पर जनता की ओर से एनडीए के मुकाबले वास्तव में अनेक राज्यों में अलग- सीट पर समाजवादी पार्टी के टिकट पर जीत से, उत्तर भी मुख्य पहचान भोजपुरी गायक की ही है। यह दूसरी सरकार की जवाबदेही सुनिश्चित करने की भूमिका, अलग ताकतें या गठबंधन मुख्य चुनौती बनकर खड़े प्रदेश में सपा-बसपा गठबंधन के तजुर्बे की धमाकेदार बात है कि अपनी पिछली संसदीय पारी में तिवारी, कमजोर नहीं होगी ?जाहिर है कि जन-प्रतिनिधियों का हों, फि भी इस चुनाव में जो सत्ताधारी गठजोड़ के शुरूआत कराने वाले, निषाद पार्टी के नेता प्रवीण भाजपा के दिल्ली के अध्यक्ष के पद तक पहुंच गए। व्यवहार, जितना ज्यादा वैचारिक तथा नीति संबंधी खिलाफनहीं है, वह उसके खिलाफ है। और यह विरोध निषाद के इस चुनाव में, एनडीए की ओर से संतकबीर संभवत: तिवारी की ही मदद से भाजपा ने खासतौर पर निष्ठड़ाओं से मुक्त होता जाएगा, जन-प्रतिनिधि की कमोबेश इस पर सहमति पर आधरित है कि नरेंद्र मोदी नगर से ताल ठोकने का ही है। दिलचस्प है कि उत्तर प्रदेश में इस बार भोजपुरी फिल्म अभिनेताओं पर उनकी भूमिका भी उतनी ही खोखली होती जाएगी। की केंद्र सरकार में वापसी, किसी न किसी पहलू मुख्यतरू टीवी बहसों में, विभिन्न पार्टियों के चेहरे की उदारता से दांव लगाया है। उसने अगर गोरखपुर की वास्तव में इस परिघटना की मौजूदगी से भी महत्वपूर्ण जनतांत्रिक व्यवस्था को चोट पहुंचाने वाली ही साबित भूमिका अदा करने वाले पार्टी प्रवक्ताओं तक को, पाला प्रतिष्ठिड्डुत सीट पर भोजपुरी अभिनेता रविकिशन पर दांव सवाल यह है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था में किस होगी। लेकिन, इतने ज्यादा राजनीतिक- लंघवाने के इस खेल से बख्शा नहीं गया है। बहरहाल, आजमाया है, तो आजमगढ़ में सपा अध्यक्ष, अखिलेश तरह के बदलाव आ रहे हैं, जो जनप्रतिनिधित्व के इस विचारधारात्मक ध्रुवीकरण वाले इसी चुनाव में हम इसी अराजनीतिकरण का शायद इससे भी ज्यादा यादव के खिलाफ निरहुआ के नाम से चर्चित भोजपुरी बढ़ते अराजनीतिकरण को संचालित कर रहे हैं। मुख्यधारा की पार्टियों की ओर से, उम्मीदवारों के महत्वपूर्ण पहलू, सीधे-सीधे अराजनीतिक लोगों को सुपरस्टार, दिनेश लाल यादव पर दांव लगाया है। जनप्रतिनिधित्व के चिंताजनक तेजी से बढ़ते चुनाव का ऐसा भारी अराजनीतिकरण भी देख रहे हैं, चुनाव में खड़ा किए जाने का है। बेशक, खासतौर पर बेशक, यह न सिर्फ दिल्ली या उत्तर प्रदेश तक ही सीमित अराजनीतिकरण की सचाई पर, अन्यान्य क्षेत्रों के जैसा शायद इससे पहले कभी नहीं देखा गया था। सिने जगत के सेलिब्रिटी उम्मीदवारों का सहारा लिए मामला है और न भाजपाधू कांग्रेस तक ही सीमित । प. विशेषज्ञों को मौका देने जैसी झूठी दलीलों से पर्दा बेशक, इस अराजनीतिकरण का एक पहलू तो जाने का खेल नया नहीं है। मुख्यधारा की पार्टियां, बंगाल में ममता बैनर्जी ने तो फिल्मी हस्तियों की पूरी डालने के परिणाम अच्छे नहीं निकलेंगे। संसद में पहुंचे दलबदल के सहारे, दूसरी पार्टियों से खींचकर लाए गए जिनमें क्षेत्रीय पार्टियां भी शामिल हैं, सिने जगत से जुड़े फैज ही मैदान में उतार दी है। मुंबाइया सितारों, सनी अनके जाने-माने कलाकारों, खिलाड़ियों आदि के लोगों को रातों-रात उम्मीदवार बनाए जाने का ही है। सेलिब्रिटी उम्मीदवारों पर यहां-वहां इस उम्मीद में दांव देयोल को पंजाब से भाजपा ने और उर्मिला मतोंडकर काम-काज का अब तक का नकारात्मक अनुभव, इसी बेशक, पिछले कुछ चुनावों से अपवादस्वरूप वामपंथ लगाती ही रही हैं, जनता के बीच उनकी लोकप्रियता, को मुंबई से कांग्रेस ने खड़ाकर, बंबइया सिनेमा के सचाई की पुष्टिङ्क करता है। दरअसल, नब्बे के दशक के को छोड़कर, मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियां कम या खुद उन्हें जिताने के अलावा भी पार्टी की मदद सकती महत्व को स्वीकार किया है। इन उदाहरणों में हम आंध्र आरंभ से हमारे देश में आयी नवउदारवाद की आंधी ने, ज्यादा दूसरी पार्टियों से नेता तोड़कर उन्हें अपना है। यही नहीं कई बार, किसी भारी-भरकम राजनीतिक प्रदेश के पवन कल्याण जैसी फिल्मी हस्तियों को नहीं स्वतंत्रता के बाद हमारे देश में खड़ी हुई राजनीतिकउम्मीदवार बनाने का खेल खेलती रही हैं और यह नेता का चुनाव मुश्किल बनाने के लिए भी सेलिब्रिटी जोड़ रहे हैं, जो चुनाव से पहले से कुछ वर्षों से सामाजिक व्यवस्था के जिन अनेक पहलुओं में भारी बीमारी बढ़ती ही गयी है। हां! भाजपा ने केंद्र में सत्ता उम्मीदवार का सहारा लिया जाता था फिर भी, इस चुनाव राजनीतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं। वास्तव में सेवानिवृत्त या तोड़-फेड़ की है, उनमें राजनीतिक पार्टियों पर आधारित में आने के बाद से इस खेल को बाकायदा पॉलिटिकल में ऐसे अराजनीतिक उम्मीदवारों की जैसी बाढ़ आयी है, रातों-रात सेवानिवृत्ति लेकर चुनाव में कूदने वाले जनतांत्रिक राजनीतिक व्यवस्था भी शामिल हैबेशक, इंजीनियरिंग की हद तक पहुंचा दिया है, जिसका उसकी शायद ही किसी ने कल्पना की होगी। अकेले नौकरशाहों या पूर्व-सैन्य अधिकारियों की और यहां तक इमर्जेंसी के बाद से औपचारिक रूप से जनतांत्रिक अमित शाह को मास्टर माइंड कहा जाता है। यह राजधानी दिल्ली में ही, 2014 के चुनाव में जीती अपनी कि संत-महंतों की स्थिति भी, फिल्मी सिलिब्रिटीज से व्यवस्था को छोड़ने या तोड़ने की दूसरी कोशिश तो नहीं गौरतलब है कि मौजूदा गहरे राजनीतिक विभाजन के सात सीटों में से दो पर भाजपा ने ऐसे ही उम्मीदवार बहुत अलग नहीं है। मुद्दा सिर्फ तकनीकी अर्थ में हुई हैलेकिन, चुनावी खोल के भीतर से उसके संदर्भ में, यह सिर्फ पार्टियां बदलने का ही मामला नहीं उतारे हैं। एक सीट पर उसने राष्ट्रीय स्तर के क्रिकेट राजनीतिक ही नहीं है कि राजनीति को दूसरे-दूसरे पेशों जनतांत्रिक सार को कार्फ हद तक खोखला किया जा रह जाता है बल्कि रातों-रात राजनीति बदलने का भी खिलाड़ी रहे गौतम गंभीर को खड़ा किया है, तो दूसरी से जुड़े लोगों के योगदान से कैसे वंचित रखा जा सकता चुका है और लगातार किया जा रहा है।