सम्मानित रोजगार की बढ़ती आकांक्षा

सम्मानित रोजगार की बढ़ती आकांक्षा



हाल ही में एक चुनावी सभा को संबोधित करते हुए कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू ने अपने श्रोताओं से भावनात्मक अपील की, “आपका एक गलत वोट आपके बच्चे को चायवाला, पकौड़ेवाला या चौकीदार बना सकता है. बेहतर हो कि बाद में पछताने की बजाय आप वैसी संभावना से अपना बचाव पहले ही कर लें.' प्रथम दृष्टि में ही यह अपनी वरीयता का बोध करानेवाली एक संभ्रांतीय-सी टिप्पणी प्रतीत होती है. कोई भी पेशा चाहे वह कितना भी निम्न जैसा लगता हो, सम्मान का पात्र होता है. आजीविका की एक अपनी ही गरिमा होती है, जिसे जलील नहीं किया जा सकता. एक दिवस के एक ईमानदार काम का, भले ही वह जिस किस्म का हो, एक अंतर्निहित मूल्य होता है, जिसे नीचा दिखाने की जरूरत ही नहीं.नवजोत सिंह सिद्धू की इस टिप्पणी से दिलचस्प समाजशास्त्रीय सवाल भी उठ खड़े होते हैं, जो हमारे समाज को आईना दिखाते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि हम एक ऐसे समाज के सदस्य हैं, जिसकी मानसिकता सामाजिक व्यवस्था में पदानुक्रम को अनिवार्यतः स्वीकारती चलती है. हमारे यहां हजारों वर्षों से गैर-बराबरीपूर्ण जाति प्रथा चली आ रही है, जिसने बड़ी तादाद में लोगों को सिर्फउनके जन्म संयोग की वजह से प्रताड़ित तथा शोषित किया है. इस प्रणाली में कुछ पेशे तथा रोजगार नीची' जातियों से संबद्ध कर दिये जकड़ ढीली कर दी है. मगर विभिन्न स्तरों में बंटे गये, जिनके सदस्यों को सामाजिक रूप से समाज की मानसिकता हमारे दैनंदिन जीवन में बहिष्कृत कर दिया गया.आज इस जाति प्रथा को स्पष्टतः दिखती ही रहती है. समाज में पदानुक्रमों आधिकारिक रूप से अस्वीकार्य समझा जाता है की संरचना परिवर्तित होती रह सकती है, पर एक और लोकतांत्रिक सशक्तीकरण ने इसकी दमघोंटू भारतीय हमेशा ही वरीय' तथा 'अधीनस्थ' के रिश्ते से ग्रस्त होता है. यह शक्ति के इस पदानुक्रम कमाई का कोई सवाल नहीं है. ऐसी कई दुकानें असमानता का शिकार है. इसके बावजूद, ऐसा की स्वीकार्यता ही है, जो लोकतंत्र तथा समानता हो सकती हैं, जो इन क्षेत्रों में अपनी प्रसिद्धि के नहीं है कि कोई भी व्यक्ति स्व-रोजगारी या जैसी अवधारणाओं के अर्थ एवं संचालन को भी झंडे गाड़ बहुत लोकप्रिय हो अपार आय और सड़कों पर रेवड़ीवाला बनना नहीं चाहेगा. कृषि एक विशिष्ट भारतीय रंग दे देती है.ऐसे समाज का मुनाफ कमा चुकी हों. पर ऐसे पेशों में हैसियत क्षेत्र अथवा शहरों की अभावग्रस्त आबादी के पहला लक्षण अपनी हैसियत का जूनून होता है. का जो अभाव अंतर्निहित है, उसकी भरपाई पैसा ऐसे करोड़ों बेरोजगार अथवा अर्ध बेरोजगार जब किसी व्यक्ति का सारा मूल्य पदानुक्रमिक नहीं कर सकता. पैसा अंततः हैसियत खरीद लोग हैं, जो किसी भी साधन की सहायता से पैमाने पर उसकी स्थिति पर टिका हो, तो अपनी सकता है, पर पारंपरिक अर्थ में हैसियत केवल आजीविका हासिल करने को बेताब हैं. लेकिन, हैसियत का आग्रह (और दूसरों द्वारा उसकी पैसे का ही परिणाम नहीं हो सकती. इसकी वे भी मौका पाते ही अपनी स्थिति से ऊपर उठने स्वीकार्यता) अत्यंत अहम हो उठती है. अपनी वजह यह है कि हम एक अत्यंत महत्वाकांक्षी को भी लालायित होते हैं. सो यदि ईमानदारी से स्थिति कायम रखने के लिए किसी को भी अपने समाज हैं. एक विशाल बहुमत में मध्यवर्गीय सोचें, तो हमें सिद्धू के कथन को एक सूक्ष्म दृष्टि अधीनस्थों से ऊपर तथा वरीयों से नीचे दिखना माता-पिता अपने बच्चों के लिए डॉक्टर, से देखना चाहिए. एक स्तर पर वे निश्चित रूप से ही चाहिए. इन समीकरणों में कोई भी हेर-फेर इंजिनियर, कॉरपोरेट अधिकारी अथवा एक संभ्रांत मानसिकता प्रदर्शित करते-से लगते नहीं हो सकता. अतीत में यह स्थिति जाति के उच्चवर्गीय सिविल सेवाओं के सदस्य बनने से हैं. एक-दूसरे स्तर पर वे एक अत्यंत अनुसार निर्दिष्ट थी. अब ऐसी रूढ़िवादिताएं कम कुछ भी नहीं चाहते. सफेद कॉलर नौकरियों महत्वाकांक्षी वर्ग की भावनाएं ही व्यक्त करते धुंधली पड़ रही हैं, पर पदानुक्रम का आग्रह न को तरजीह, जबकि शारीरिक श्रम के पेशों के प्रतीत होते हैं. इन दो ध्रुवों के बीच पाखंड के सिर्फ पूरी तरह कायम है, बल्कि कुछ अर्थों में प्रति अरुचि दिखाई जाती है. किसी भी जॉब पर लिए भी पर्याप्त अवकाश मौजूद है. हमारे और गहरा हुआ है. नयी अनिश्चितताओं तथा नये लगा ठप्पा अहम होता है. उसे दुनिया को यह मध्यवर्ग तथा बुद्धिजीवी वर्ग के बहुत से सदस्य अवसरों ने अपनी एवं औरों की स्थिति के प्रति संदेश देना ही चाहिए कि उनके बच्चे एक सिद्धू के कथन की निंदा तो करेंगे किंतु स्वयं संवेदनशीलता और भी बढ़ा दी है.सिद्ध की उर्ध्वगामी सीढी के पहले पायदान पर पहुंच चुके अपने बच्चों को वे उनके द्वारा निर्दिष्ट पेशों में टिप्पणी इसी संदर्भ में देखी जानी चाहिए. एक हैं. एक चायवाला कॉरपोरेट जगत या सरकारी कदापि नहीं भेजना चाहेंगे. भारत को एक चायवाला, पकौड़ेवाला अथवा चौकीदार होने में दफ्तर के एक नये कर्मी से कहीं ज्यादा कमाई विशाल जनसांख्यिक लाभ हासिल है. हमारी कुछ भी गलत नहीं है, पर हमारे समाज की कर सकता है, पर पैसा 'पद' की पूर्ति नहीं कर आबादी का 65 प्रतिशत से भी अधिक 35 वर्षों पदानुक्रमिक प्रवृत्ति एवं अपनी हैसियत को दिये सकता. यही कारण है कि एक पकौड़ेवाला एक से नीचे का है. प्रतिदिन शिक्षित बेरोजगारों की जानेवाले महत्व की वजह से कुछ कामों को बीकानेरवाला बनना चाहता है, एक चायवाला एक फैज रोजगार के बाजारों में आ रही है, निम्न तथा कुछ को वरीय या वांछनीय समझा किसी बैरिस्टा दुकान का स्वामी बनना चाहता है, जिनकी संख्या रिक्तियों से अधिक है. एक जाता है. इस तरह, जहां हम सिद्ध की टिप्पणी की जबकि एक चौकीदार किसी सिक्योरिटी एजेंसी समाधान यह है कि अधिक से अधिक बेरोजगार निंदा कर सकते हैं, वहीं तथ्य यह है कि उनके का मालिक बनने को लालायित है. उस पर भी अपना उद्यम शुरू करें. पर क्या वे स्वेच्छा से द्वारा निर्दिष्ट पेशे हमारे मध्य वर्ग के एक विशाल अपने बच्चों के लिए उनकी इच्छा यह होगी कि चायवाला, पकौड़ेवाला या चौकीदार बनना दायरे के लिए अवांछनीय हैं.यहां किसी व्यक्ति वे और आगे बढ़कर ज्यादा 'सम्मानित' जॉब चाहेंगे, इस सवाल को एक ईमानदार जवाब की द्वारा पकौड़े या चाय बेचकर हासिल की जा रही करें. हमारा समाज विराट सामाजिक-आर्थिक तलाश है.