सीजेआइ प्रकरण से उपजे सवाल

सीजेआइ प्रकरण से उपजे सवाल



भारत के मुख्य न्यायाधीश पर महिला कर्मचारी द्वारा यौन उत्पीड़न के आरोप प्रकरण ने जनमानस में कई प्रश्न अनुत्तरित छोड़ दिये हैं। सुप्रीम कोर्ट के जजों की तीन सदस्यीय आंतरिक समिति के द्वारा जांचोपरांत मुख्य न्यायाधीश को आरोप मुक्त किये जाने संबंधी प्रतिवेदन से असहमत भी होने का कारण नहीं है। फिर भी इस अभूतपूर्व घटना ने न्याय प्रणाली से जुड़े महत्वपूर्ण मुद्दों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। पूर्व महिला कर्मचारी ने उच्चतम न्यायालय के अधिकतर जजों को पत्र लिखकर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया। आरोप भारत के मुख्य न्यायाधीश पर लगा था, नतीजतन, इस पत्र ने न्यायपालिका की सर्वोच्च संस्था में अप्रत्याशित हड़कंप मचा दिया। हलफनामे में पूर्व कर्मचारी ने अक्तूबर, 2018 की दो घटनाओं का जिक्र करते हुए मुख्य न्यायाधीश पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया। स्थापित सामान्य न्यायिक प्रक्रिया से हटकर आनन-फनन में मुख्य न्यायाधीश ने तीन सदस्यीय समिति गठित कर दी फि उक्त महिला की आपत्ति पर एक सदस्य जज को बदलकर दूसरी महिला जज को मनोनीत किया गया। मुख्य न्यायाधीश ने अपने बैंक खाते में जमा रकम का हवाला देते हुए अपने को निर्दोष बताने की कोशिश की। आंतरिक समिति की कार्यशैली भी विवादास्पद ही रही। महिला को अपना वकील रखने से मना कर दिया गयासमिति की कार्यवाही को गोपनीय रखा गया। अंत में, महिला ने समिति के काम करने के अनौपचारिक तरीके पर आपत्ति जताते हुए समिति कक्ष में भय का वातावरण व्याप्त रहने की शिकायत की। मामले की सुनवाई विशाखा गाइडलाइन एवं कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न अधिनियम, 2013 के तहत किये जाने की मांग खारिज होने पर उसने अपने को जांच प्रक्रिया से ही अलग कर लिया। पूरे घटनाक्रम से स्पष्ट है कि इस मामले में उच्चतम न्यायालय शुरू से ही अति- प्रतिक्रिया एवं त्रास का शिकार बन गयी। वरना सामान्य न्यायिक प्रक्रिया के तहत इस मामले का निष्पादन ज्यादा सम्मानित तरीके से हो सकता था। इस मामले से दो मुद्दे उभरे हैं। पहला, न्यायपालिका तक के लिए कोर्ट ने कुछ दिशा-निर्देश जारी किये, की कार्यशैली में पारदर्शिता का एवं दूसरा, जिसे श्विशाखा गाइडलाइनश् के नाम से हम जानते हैं। भारत के मुख्य न्यायाधीश पर महिला कर्मचारी द्वारा सामाजिक-प्रगतिशील कानूनों के क्रियान्वयन में धीरे-धीरे उच्चतम न्यायालय द्वारा ही महिला उत्पीड़न यौन उत्पीड़न के आरोप प्रकरण ने जनमानस में कई प्रश्न व्यावहारिक प्रमाणिकता का। आरोपों की जांच या रेप मामले में स्वतंत्र गवाह की अनिवार्यता को भी अनुत्तरित छोड़ दिये हैं। सुप्रीम कोर्ट के जजों की तीन गोपनीय तरीके से करना एवं महिला को वकील रखने समाप्त कर दिया गया। न्यायालय ने यह मानते हुए कि सदस्यीय आंतरिक समिति के द्वारा जांचोपरांत मुख्य का अधिकार न देना- ये दोनों बातें सामान्य रूप से ऐसी स्थिति में कोई दूसरा व्यक्ति उपस्थित नहीं होता न्यायाधीश को आरोप मुक्त किये जाने संबंधी प्रतिवेदन पारदर्शिता के सिद्धांत के विपरीत हैं। न्यायपालिका है, इसके सत्यापन की आवश्यकता को भी खत्म कर से असहमत भी होने का कारण नहीं है। फिर भी इस द्वारा बारंबार पूर्ण पारदर्शिता के सिद्धांत को लागू करने दिया। अब अगर महिला किसी व्यक्ति को पहचान अभूतपूर्व घटना ने न्याय प्रणाली से जुड़े महत्वपूर्ण के लिए अनेक महत्वपूर्ण निर्णय दिये गये हैं। कई कर उसके विरुद्ध यौन उत्पीड़न का आरोप लगाती है, मुद्दों की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। पूर्व महिला अवसरों पर तो न्याय-निर्णय के क्रियान्वयन में तो यह अपने आप में संतोषजनक प्रमाण मान लेने का कर्मचारी ने उच्चतम न्यायालय के अधिकतर जजों व्यावहारिक कठिनाइयां भी उत्पन्न हुई हैं। इस प्रकरण निर्देश जारी किया गया। महिला कर्मचारी इसी कानून को पत्र लिखकर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया। में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनायी गयी गोपनीय के तहत सुनवाई की मांग कर रही थी। यह सही हैआरोप भारत के मुख्य न्यायाधीश पर लगा था, प्रक्रिया का औचित्य क्या है? क्या यह मान लिया कि परंपरागत रूप से उपेक्षित एवं शोषित वर्गों के नतीजतन, इस पत्र ने न्यायपालिका की सर्वोच्च संस्था जाये कि महत्वपूर्ण संस्थाओं की विश्वसनीयता या साथ ज्यादतियां होती रही हैंइसमें मुख्य रूप से में अप्रत्याशित हड़कंप मचा दिया। हलफनामे में पूर्व इनसे जुड़ी मर्यादाओं की रक्षा के लिए गोपनीयता भी महिला, अनुसूचित जातिध् जनजाति एवं पिछड़े वर्ग कर्मचारी ने अक्तूबर, 2018 की दो घटनाओं का जिक्र आवश्यक होती है? फिर तो, ऐसी प्रक्रिया के लोग आते हैंइसे रोकने हेतु सख्त कानून की करते हुए मुख्य न्यायाधीश पर यौन उत्पीड़न का न्यायपालिका के अलावा सरकार से जुड़ी दूसरी आवश्यकता है। सरकार ने भेदभाव समाप्त करने हेतु आरोप लगाया। स्थापित सामान्य न्यायिक प्रक्रिया से संस्थाओं की गरिमा एवं मर्यादा की सुरक्षा के मामलों इसी के आधार पर कई महत्वपूर्ण एवं कारगर हटकर आनन-फनन में मुख्य न्यायाधीश ने तीन में भी लागू करना प्रासंगिक होगा। दूसरा महत्वपूर्ण सामाजिक कानून बनाये हैं। इन कानूनों के बनने से सदस्यीय समिति गठित कर दी फि उक्त महिला की मुद्दा प्रगतिशील–सामाजिक कानूनों के बढ़ते दुरुपयोग संबंधित वर्ग के सदस्यों को राहत मिली है एवं अब आपत्ति पर एक सदस्य जज को बदलकर दूसरी से उत्पन्न हो रही व्यावहारिक कठिनाइयों से संबंधित कोई उनका शोषण अथवा उत्पीड़न आसानी से नहीं महिला जज को मनोनीत किया गया। मुख्य है। आये दिन महिला उत्पीड़न तथा अनुसूचित कर सकता है। इसमें न्यायपालिका की भी बड़ी न्यायाधीश ने अपने बैंक खाते में जमा रकम का जातिध्जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम जैसे भूमिका रही है। लेकिन, अब इस तरह के कानूनों से हवाला देते हुए अपने को निर्दोष बताने की कोशिश संवेदनशील कानून के दुरुपयोग की शिकायतें सुनी संबंधित दूसरा पक्ष सामने आ रहा है। ऐसे कानूनों की की। आंतरिक समिति की कार्यशैली भी विवादास्पद जाती हैं। जस्टिस कर्णन मामले को लोग अभी भूले आड़ में निर्दोष लोगों को परेशान करने की शरारतपूर्ण ही रही। महिला को अपना वकील रखने से मना कर नहीं होंगे। न्यायपालिका के इतिहास में यह अनोखा कार्रवाई की सूचना भी यत्र-तत्र से सुनी जाती है। दिया गयासमिति की कार्यवाही को गोपनीय रखा अवसर था, जिसमें सर्वोच्च न्यायिक संस्था पर ही इन चाहे जस्टिस कर्णन का मामला हो या वर्तमान में उच्च गया। अंत में, महिला ने समिति के काम करने के अधिनियमों के तहत न सिर्फआरोप लगा, बल्कि देश न्यायालय के महिला कर्मचारी के उत्पीड़न का अनौपचारिक तरीके पर आपत्ति जताते हुए समिति के उच्चतम न्यायिक अधिकारी मुख्य न्यायाधीश को मामला, ये दोनों ज्वलंत प्रमाण हैं, जिसमें इन कानूनों कक्ष में भय का वातावरण व्याप्त रहने की शिकायत ही आरोपित कर दिया गया। जस्टिस कर्णन ने अपने के दुरुपयोग की जद में कोई सामान्य नागरिक नहीं, की। मामले की सुनवाई विशाखा गाइडलाइन एवं ही मामले में स्वतरू संज्ञान लेते हुए कॉलेजियम के बल्कि उच्चतम न्यायालय खुद आ गया। उच्चतर कार्यस्थल पर महिलाओं का यौन उत्पीड़न सारे सदस्य जजों को अनुसूचित जातिध् जनजाति न्यायपालिका तो सर्वशक्तिमान होती है, वह ऐसे अधिनियम, 2013 के तहत किये जाने की मांग निवारण अधिनियम के तहत दोषी करार कर सजा घातक जद से अपने को बाहर कर लेने में सक्षम है। खारिज होने पर उसने अपने को जांच प्रक्रिया से ही सुना दी। वर्तमान मामले में भी मुख्य न्यायाधीश के परंतु किसी सामान्य नागरिक के विरुद्ध षड्यंत्र के अलग कर लिया। पूरे घटनाक्रम से स्पष्ट है कि इस विरुद्ध सुप्रीम कोर्ट के निर्देश को ही लागू करने की तहत ऐसे आरोप लगाये जाते हैं, तो उसकी न्यायसंगत मामले में उच्चतम न्यायालय शुरू से ही अति- मांग महिला कर्मचारी द्वारा की गयी। साल 1997 में रक्षा के लिए तो न्यायपालिका को ही संवेदनशील प्रतिक्रिया एवं त्रास का शिकार बन गयी। वरना पारित ऐतिहासिक निर्णय के तहत कार्यस्थल पर जिम्मेदारी निभानी होगी। हमारा न्यायशास्त्र भी बेगुनाह सामान्य न्यायिक प्रक्रिया के तहत इस मामले का महिलाओं के साथ उत्पीड़न के विरुद्ध कानून बनाने लोगों की सुरक्षा को दोषियों की सजा से कम वांछनीय निष्पादन ज्यादा सम्मानित तरीके से हो सकता था। का निर्देश न्यायालय द्वारा दिया गया और कानून बनने नहीं मानता है।